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सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा लिखने वाले अल्लामा इकबाल की यौम-ए-पैदाइश आज

Up News : हिंदुस्तान पर ब्रिटिश हुकूमत काबिज थी। गोरों के अत्याचार से हिन्दुस्तानियों की रूह कांपती थी। मगर, इसी बीच वर्ष 1904 में अल्लामा इकबाल ने सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा तराना गाकर अंग्रेजों को चैलेंज किया था। हालांकि, सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा गुनगुनाने वाला हर भारतीय जानता है कि इसके रचयिता का नाम इकबाल है। वह अपनी विद्वंता के कारण अल्लामा कहलाए। उनका पूरा नाम अल्लामा इकबाल यानी विद्वान इकबाल हो गया।हालांकि, ताराना-ए-हिंद यानी ‘सारे जहां से अच्छा’ लिखने वाले इकबाल ने कुछ साल बाद तराना-ए-मिल्ली लिखा। इसमें मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा। मगर, हम अल्लामा इकबाल की चर्चा इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि आज यानी 9 नवंबर को उनकी यौम-ए-पैदाइश (जन्मदिन) है।

 

जानें अल्लामा इकबाल के बारे में
अल्लामा इकबाल का जन्म 9 नवंबर 1877 को अविभाजित भारत के (पंजाब के सियालकोट (में हुआ था। यह अब पाकिस्तान में है। इतिहास की मानें, तो उनका परिवार कश्मीरी हिंदू था। मगर, 17वीं शताब्दी में इस्लाम धर्म अपना लिया था। इकबाल का पूरा नाम था मुहम्मद इकबाल मसऊदी था। इकबाल खुद इन दोनों धर्मों की संस्कृतियों के संधि स्थल पर खड़े दिखते थे। खुद उन्होंने अपनी एक कविता में जिक्र किया है कि परिवार ब्राह्मण है, पर उनमें सूफी इस्लाम है। इकबाल ने साल 1899 में लाहौर के जाने-माने गवर्नमेंट कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। इसके बाद वहीं नौकरी करने लगे। वह साल 1905 में आगे की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज पहुंचे, तो एक नया बदलाव दिखा। गुलामी की जंजीरों में जकड़े लाहौर के बजाय इंग्लैंड की हवा में आजादी थी। इसके बाद आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। मगर, उनका इंतकाल गुलाम भारत (मृत्यु) 21 अप्रैल 1938 को हुई थी।

लंदन में भारतीय महिला से इश्क
अल्लामा इकबाल के हाईस्कूल करने के बाद माता-पिता ने निकाह कर दिया था। मगर, उनको लंदन जाने के बाद पहली बार इश्क हुआ। यह कुछ समय में ही मुहब्बत में बदल गई। वह लंदन में एक भारतीय मुस्लिम महिला अतिया फैजी से मुहब्बत कर बैठें।अतिया फैजी लंदन में ही पली-बढ़ी हैं। आधुनिक मिजाज वाली थी। वहां इकबाल तीन साल रहे और प्रेम की कविताएं रचते रहे। इस दौरान इतने आजाद थे कि पसंदीदा महिला संग समय बिता सकें तो मिजाज में पश्चिम के खिलाफ आलोचना भी पनपने लगी। जिस प्यार का अहसास उन्हें हुआ था। उसी को पश्चिम की समस्या मानने लगे। यूरोप के भौतिकतावाद के आलोचक भी बन गए। उनमें लंदन में ही बदलाव आने लगा था।

चौधरी रहमत अली की पाकिस्तान की मांग, लेकिन इकबाल पर आरोप
देश की आजादी की लड़ाई के दौरान चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान की मांग रखी थी। लंदन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान साल 1930 के शुरुआती दशक में दक्षिण एशिया में एक मुस्लिम देश की जरूरत जतानी शुरू कर दी थी। यानी अलग पाकिस्तान की मांग सबसे पहले चौधरी रहमत अली ने ही रखी। इसका भारत के कुछ चरमपंथी संगठनों ने भी समर्थन किया। वर्ष 1933 में बाकायदा एक पर्चा जारी कर कट्टर सांप्रदायिकता को हवा दी और पर्चे में लिखा कि अब नहीं तो कभी नहीं। उस पर्चे में चौधरी ने नए देश पाकिस्तान का बाकायदा नक्शा भी दिया था। मुस्लिम लीग के मुहम्मद जिन्ना ने इसे मौके के रूप में भुनाया और इस सोच को ले उड़े। जिन्ना ने इकबाल को जाल में फंसाने की कोशिश की। वर्ष 1908 में इकबाल भारत लौटे, तो अगले तीन दशकों तक वकालत की। इसके साथ ही कविताएं लिखते रहे। मगर,इसके बाद कुछ समय को राजनीति में आ गए। वर्ष साल 1930 और 1932 में इकबाल मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बने, तो सोच बदलने का आरोप है।

आजादी से नौ साल पहले इंतकाल
अल्लामा इकबाल को पश्चिम की धर्मनिरपेक्षता और अरब की आक्रामकता पसंद नहीं थी। पश्चिमी देशों के आलोचक इकबाल ने 1932 में अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन में हिस्सा लिया। इसमें कहा कि भारत के लोग वैसी ही धर्मनिरपेक्ष संस्थाओं की मांग कर रहे हैं। इस कारण पश्चिम का पतन हुआ। हालांकि, इकबाल को अरबी साम्राज्यवाद भी पसंद नहीं था। शिया-सुन्नी में बंटे अरब की आक्रामकता भी उन्हें रास नहीं आती थी। उन्होंने कहा था कि कोई देश या संस्था नहीं चाहते। जिससे मुस्लिम बंटें, से लागू कर सकें। भारत आजाद हुआ और पाकिस्तान बना। मगर,उनकी नौ साल पहले 21 अप्रैल 1938 को लाहौर में मौत हो चुकी थी।

यह शेर थे उनके खास
अल्लामा इकबाल ने काफी लिखा है। मगर, उनकी पहचान सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा तराने से हुई।सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा,हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिताँ हमारा। ग़ुर्बत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में,समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा। पर्बत वो सब से ऊँचा हम-साया आसमाँ का,वो संतरी हमारा वो पासबाँ हमारा। गोदी में खेलती हैं इस की हज़ारों नदियाँ, गुलशन है जिन के दम से रश्क-ए-जिनाँ हमारा। ऐ आब- रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझ को उतरा, तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा।मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा, यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से,अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा, ‘इक़बाल’ कोई महरम अपना नहीं जहाँ में, मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा। इसके साथ ही उनका “ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है” भी काफी गुनगुनाया जाता है।

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